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20 Aug 12:38

योगिता यादव

by pahlee bar




योगिता का जन्म दिल्ली में १९८१ में हुआ। बचपन दिल्ली में ही बिता।    
योगिता में हिन्दी साहित्य और राजनीति शास्त्र से परास्नातक किया है। विगत ग्यारह वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय। आजकल जम्मू में दैनिक जागरण के लिए पत्रकारिता। योगिता कविता और कहानियां दोनों विधाओं में लिखती हैं। हंस, नया ज्ञानोदय, प्रगतिशील वसुधा, पर्वत राग, पुनर्नवा आदि पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।


योगिता ने अपनी इस कहानी में मन्दबुद्धि लोगों के उन मनोभावों को पकड़ने की सफल कोशिश की है जिन पर प्रायः किसी का ध्यान नहीं जाता।  उन्होंने ऐसे उलझे हुए तारों को सुलझाने की कोशिश की है जो इतनी बेतरतीबी से आपस में उलझे हुए होते हैं कि  प्रायः अनसुलझे ही छूट जाते हैं। लेकिन यहाँ भी एक जीवन है, जीवन की उमंग है। ऐसा जीवन जो बेतरतीबी में भी अपनी एक तरतीब ढूंढ लेता है। योगिता कहानी की दुनिया में एक ऐसा नया नाम है जिन्होंने अपने शिल्प और कहन के तरीके से ध्यान आकृष्ट किया है। अभी-अभी इन्हें ज्ञानपीठ का 2013 का कहानी का नवलेखन पुरस्कार मिला है। वाकई कहानी पर ही। अगर आपको  यकीन न हो तो योगिता की कहानी पढ़ कर ही आप उनके लेखनी की ताकत से रू-ब-रू हो लीजिये।  


गांठें

मैं जब जन्मा तब रोया नहीं था। इसलिए मेरे पैदा होते ही मेरी मां रो पड़ी। डॉक्टर कहते थे कि मैं शायद कभी सुन और बोल न सकूं। मेरे मस्तिष्क का पूरी तरह विकास नहीं हो पाया है। मैं गूंगा, बहरा,  मंदबुद्धि, दुनिया के लिए गैर जरूरी हो गया।

मेरे जन्म के बाद मेरे पिता को अहसास हुआ कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। मेरी मां दूर के रिश्ते में उनकी बुआ लगती थी। उन्होंने सबके खिलाफ हो कर उनसे शादी की। तब वे आधुनिक थे, पुरानी मान्यताओं को तोड़ डालना चाहते थे। लेकिन मेरे जन्म के बाद उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने जो किया, वह पाप था। और पाप से ही ऐसी विकृत संतानें पैदा होती हैं। अब वे इसका प्रायश्चित करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मेरी मां से संबंधविच्छेद का फैसला किया। मंदिरों में झाड़ू लगाई। कन्या पूजन किया। हनुमान मंदिर में 40 दिन पोंछा लगाया। गुरुद्वारे में जूते साफ किए....। और फिर परिवार के कहने पर एक दूसरी लड़की से शादी कर ली। इसके साथ उनके संबंध पाप नहीं थे। 

मां पिता जी से अलग थी। वह न गलती छोडऩा चाहती थी और न पिताजी को। इस संबंध के बारे में उसकी अपनी कोई परिभाषा नहीं थी। बस एक आस्था थी, जिद और मजबूरी भी, इससे बंधे रहने की। उसने अपनी साड़ी के पल्लू में एक गांठ बांध ली, कि अगर मैं ठीक हो गया तो वह पीर बाबा की मजार पर चादर चढ़ाएगी। 

दादी ने पिता जी की गलती भी सुधारी और मां की मजबूरी को भी जगह दी। घर के पिछली तरफ का एक कमरा उन्होंने मां और मेरे रहने के लिए दे दिया। घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। न मुझे, न मां को। फिर भी मां खुश नहीं थी। वह बूढ़ी, बीमार सी दिखती। मुझे देख कर कभी खुश होती तो कभी रोती रहती। और फिर पल्लू में गांठ बांध लेती। एक-एक कर उसकी कई साडिय़ों में गांठ बंध गई थी। 

मैं पिताजी को पिता नहीं कह सकता था, यह पाप था। छोटी मां के आने के बाद घर में एक छोटा भाई और बहन भी आए। वे दोनों सुंदर थे, बोल सकते थे, सुन भी सकते थे। पिताजी उन्हें देख कर खुश होते। वह पिताजी को पिता कह सकते थे। 

मुझे देखते ही मेरे अच्छे पिता को न जाने क्या हो जाता। वह पागलों की तरह मुझ पर और मेरी मां पर बरस पड़ते। शायद मेरा होना उनके प्रायश्चित पर पोंछा फेर देना था। बाकी सबके लिए मेरा होना एक असभ्यता, एक मजाक था। एक बदनुमा सा उदाहरण भर। छोटे भाई-बहन के लिए भी। जिसे देख कर वे हंसते। कभी मुझ पर पानी डालते। कभी सिर पर गुब्बारे मारते, मैं रोता तो खूब हंसते। उन्हें हंसता देख कर मैं भी हंसता, तब वे और मारते। वे स्कूल जाते, मैं नहीं जा सकता था। वे सुंदर कपड़े पहनते, मैं नहीं पहन सकता था। मेरे मुंह से लार गिरती रहती। मैं जो भी पहनता वह गंदा हो जाता। कभी-कभी मैं निक्कर में पेशाब कर देता, तब छोटी मां मुझे बहुत पीटती। वे पिताजी को उनके पाप और मां को उनकी चरित्रहीनता की याद दिलाती। मैं किसी लायक नहीं था, मैं कुछ नहीं कर पाता। पिताजी मुझे हाथ भी नहीं लगाना चाहते थे। इसलिए जब वे मुझ पर बहुत गुस्सा होते तो जूते और लातों से मुझे पीटते। वे मां के कमरे तक सिर्फ मुझे ढूंढने या हम दोनों के होने पर अफसोस जताने ही आते। मेरे सब त्योहार यूं ही लानतों, जलालतों में बीतते। और मां के मेरी गलतियों पर पिटते हुए।

एक दिन मां ने मुझे नहला कर धूप में बैठाया। बच्चे गली में खेल रहे थे। मैं भी वहां पहुंच गया। मुझे नंगा देख सब लड़कों ने मेरे शरीर पर आगे पीछे मारना और जोर-जोर से हंसना शुरू कर दिया। चोट तो लगी पर उन्हें हंसता देख कर मैं भी नाचने लगा। पता नहीं कब वहां पिताजी आ गए। कान पकड़ कर वे मुझे खींचते हुए मां के पास ले आए और मां को पीटते हुए समझाने लगे कि मुझ मंदबुद्धि को कपड़े पहनने की तमीज सिखाए। मैं अब बच्चा नहीं रहा। इस बार मैंने मां को पिटने के लिए अकेला नहीं छोड़ा। जैसे सब लड़के लात से मेरे शरीर के आगे पीछे मार रहे थे मैंने भी पिता जी को मारा। मां घबरा गई। पिता जी बेंत उठाने के लिए दौड़े और मां ने मुझे कमरे में बंद कर दिया। आज फिर मां ने मुझे पिताजी की मार से बचा लिया था। पर वह रो रही थी। उसने आज फिर अपने पल्लू में एक गांठ लगा ली। मुझे समझ नहीं आता, पीर बाबा की मजार पर मां कितनी चादरें चढ़ाएगी! 



            मां सो चुकी थी, उसके अलावा मुझे रोकने वाला कोई नहीं था। मैं गली में निकल गया। गली से बाहर सड़क पर। और फिर एक भीड़ में। मैं भीड़ के पीछे छुप गया। यहां बंदर का तमाशा हो रहा था। सब लोग ताली बजा रहे थे, पैसे फेंक रहे थे। मैं भी तो ऐसे ही नाचा था, सब हंस रहे थे। फिर वे पैसे फेंकने की बजाए मुझे मार क्यों रहे थे? मुझे ये लोग अच्छे लगे। मैं भी नाचने लगा, सब हंसने लगे, मुझ पर पैसे फेंकने लगे। मदारी मुझे भगाने लगा पर मैंने पैसे उठाकर उसे दे दिए, वह खुश हो गया। मैंने और बंदर ने मिल कर नाच दिखाया। नाच खत्म हुआ। सबने ताली बजाई और चले गए। मैं कहां जाता? मैं वहीं बैठा रहा। मदारी ने मुझसे बहुत कुछ पूछा, पर मैं नहीं बता सका। इसी बात से पिताजी नाराज थे। मैं किसी लायक नहीं था। पर मदारी ने मुझे मारा नहीं। उसने मुझे अपने साथ साइकिल पर बिठाया और ले चला। हम एक बस्ती में पहुंच गए। मदारी के घर। वहां एक औरत थी। वह मां की तरह गांठें लगा रही थी। सफेद कपड़ों में। उसके पास चने, कंकड़ और धागे पड़े हुए थे। वह गीले कपड़ों में उन सबसे अलग-अलग तरह की गांठें लगा रही थी। उसने मुझे खाना खिलाया और फिर मैं सो गया। सुबह उठा तो मुझे मां की बहुत याद आई और मैं रोने लगा। मुझे अपने घर का रास्ता भी नहीं पता था। मदारी ने मुझे अपने साथ साइकिल पर बैठाया और ले चला। मैं खुश था, मदारी सब कुछ कर सकता है, वह मुझे मेरे घर भी ले चलेगा। पर उसने ऐसा नहीं किया। दिन भर उसने अलग-अलग जगहों पर मुझे बंदर के साथ नचाया और शाम को वापस अपने साथ घर ले आया। वह औरत अब भी सफेद गीले कपड़ों में गांठें लगा रही थी। मां कहती थी कि गांठ लगाने से मुराद पूरी होती है। इसलिए मैं भी गांठें लगाने लगा। अब शायद मां मुझे जल्दी मिल जाएगी। मेरी गांठें देख कर वह औरत खुश हो गई। उसने मुझे और दो चार तरह से गांठें बांधनी सिखाई, मैंने बांध दी। वह खुश हो गई और फिर मुझे शाबाशी दी। जैसे मां देती थी। मुझे मां और ज्यादा याद आने लगी और मैं रोने लगा। उस औरत ने मुझे अपने हाथ से खाना खिलाया और सुला दिया। सुबह उठा तो फिर मां याद आने लगी। आज उसने मुझे मदारी के साथ नहीं भेजा, बल्कि अपने साथ घर पर रख लिया। हमने दिन भर में ढेर सारी गांठें लगाईं। शाम को हम गांठ लगे कपड़े लेकर बाजार में गए। यह तो दुनिया ही अलग थी। गांठ लगे कपड़े जब भट्टी के उबलते पानी से बाहर निकलते तो  अलग ही रंग के हो जाते। गांठों में बंधे कंकड़ और दाने उन्हें खौलते रंगों से बचा लेते और फिर वे लाल, नीले, पीले, हरे.... रंगों के साथ मिलकर और खूबसूरत हो जाते। मां होती तो कितनी खुश होती, उसे तो पता ही नहीं होगा कि गांठें जब रंगों से लड़ती हैं तो कितनी सुंदर हो जाती हैं। 

वहां से हम और कपड़े ले कर आए। ढेर सारे। हमें इनमें और गांठें लगानी थीं। ढेर सारी गांठें, ढेर सारे रंगों के लिए। मैं थक गया था, मैंने खाना खाया और सो गया। सपने में गांठें मुझसे बात करना चाह रहीं थीं। पर मेरी नींद टूट गई। अंधेरे में कोई मुझे तंग कर रहा था। गली के उन लड़कों की तरह। आगे पीछे से। मैं डर गया। मदारी मेरे पास था। मैंने डर के मारे आंखें बंद कर ली और फर्श पर दूर घिसट आया। पर थोड़ी देर बाद उसने मुझे फिर से आगे पीछे से छेडऩा शुरू कर दिया। मैंने डर के मारे उसे लात मार दी। मुझे पता था छेडऩे के बाद पिटाई होती है। मैं डर गया अब मदारी मुझे मारेगा। मैं रोने लगा, वह मेरा मुंह बंद करने लगा। मैं तड़पने लगा। चिल्लाने की कोशिश करने लगा। मैंने उसे जोर का धक्का मारा, जैसे पिता जी को मारा था। उसने मुझे तमाचा मारा, मैंने गांठों वाले कपड़े से उसकी गर्दन में एक बड़ी सी गांठ लगा दी। अब वह चिल्ला रहा था, तड़प रहा था, मैंने गांठ और सख्त कर दी। वह पैर पटकता रहा और आखिर फर्श पर गिर पड़ा। मैं डर के मारे कोने में दुबक गया। वह औरत उठ गई थी, मदारी को गिरा देख कर वह रोने लगी। उसने मुझे मारना शुरू कर दिया। मां होती तो मुझे बचाती। मैं कोने में दुबका रहा। लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई। वे मुझे हैरानी से देख रहे थे, मुझे लगा अब सब मिलकर मुझे मारेंगे। मैं वहां से भाग खड़ा हुआ। भीड़ मेरे पीछे थी। मैं भागा जा रहा था, भीड़ मुझे पत्थर मार रही थी। भागते-भागते मैं ठोकर खा कर गिर पड़ा।

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जब मुझे होश आया मैं हॉस्पिटल में था। मैं अब भी डरा हुआ था। मैं हर वक्त बिस्तर के नीचे या कोने में दुबका रहता। पिताजी, मदारी और भीड़ के पत्थरों ने मुझे एक कोने में कर दिया था। मैं मां को याद करता, रोता और एक गांठ बांध देता। सब मुझ पर तरस खाते। एक दिन मैं यूं ही कोने में दुबका चादर की गांठ बांध रहा था, कि मां आ गई। मां मुझे देखते ही रो पड़ी, और मुझे सीने से लगा लिया। मैं भी मां से लिपट कर रोता रहा। मां मुझे वापस घर ले आई। 

मां ने मुझे नहलाया, खाना खिलाया, दवा दी और देर तक थपकियां देती रही, पर मुझे नींद नहीं आई। आंखें बंद करता तो पिताजी, मदारी और भीड़ सब एक साथ मुझ पर बरसते दिखाई देते। सब मिल कर अगर मुझे मारने लगे तो मां अकेली मुझे कहां बचा पाएगी। मां के पल्लू में अब भी गांठ बंधी थी। मैंने मां की साडिय़ों में गांठ लगा कर कई पोटलियां बना दीं। उन पोटलियों में बड़े-बड़े पत्थर बांध कर कोने में छुपा दिया। और दिन रात उनके पास बैठा रहता। मेरी पोटलियां खौलते रंगों की तरह सबसे लड़ सकती हैं। मां मुझे कोने से निकालने की, सुलाने की बहुत कोशिश करती, पर उसे कहां पता था कि सोने के बाद लोग कैसे तंग करते हैं।

आज पिता जी फिर गुस्से में थे, मुझे ढूंढते हुए वे हमारे कमरे की तरफ आ रहे थे। उनके हाथ में बेंत था। मेरा शरीर दुखने लगा था सबसे मार खा- खा कर। अब तो मेरे शरीर पर जख्म ही जख्म नजर आते थे। मैंने कोने में लगे पोटलियों के ढेर की तरफ देखा, कोई मेरी मदद के लिए नहीं उठी। मैंने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। और सारा सामान दरवाजे पर इकट्ठा कर दिया ताकि कोई दरवाजा न खोल सके। पिता जी गुस्से से दरवाजा पीट रहे थे। उनकी आवाज तेज होती जा रही थी, डर के मारे मेरा पेशाब निकल गया, मैं कांपने लगा। रोने लगा, आंख से, मुंह से चिपचिपा पानी रिस रहा था। मैं पोटलियों के बीच में घुस गया। मैंने आखरी बार हर एक की तरफ बड़ी आस से देखा, कोई मेरी मदद के लिए नहीं खुली। मैंने खुद एक पोटली की गांठ खोली और एक मजबूत फंदा अपने गले में बना लिया, जैसे मदारी के लिए बनाया था।

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